मूल्यांकन ~ दिल को झिंझोड़ने वाली कथा

वह एक अकेली स्त्री थीं। बहुत संपन्न नहीं थी लेकिन अध्यापन करके जो भी उपार्जन करतीं, उससे संतुष्ट थीं। उनकी सादगी ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। वह स्वाभिमान के साथ अपनी जिंदगी जी रही थीं। कभी किसी से मदद की उम्मीद नहीं की। लेकिन एक दिन उनके पास एक परोपकारी महाशय आए, उनके आत्मसम्मान को तार-तार कर गए। दिल को झिंझोड़ने वाली कथा।

Moral love story || love story
मूल्यांकन


 मूल्यांकन 

बहन जी, आपसे एक बात पूछनी है।' ह..हां पूछिए।" | 'क्या आपकी जानकारी में कोई ऐसा व्यक्ति है, जिसे भोजन की, खाने-पीने की समस्या हो।' 'मैं समझी नहीं?' 'ऐसा है बहन जी, आपकी भाभी के सिधार जाने के बाद से मैं अकेला ही रहता हूं। बेटा-बहू परदेस में। कोई दिक्कत नहीं है मुझे। अच्छी-खासी पेंशन मिलती है। बाई पुरानी है। घर की साफ-सफाई कर जाती है। एक महिला टिफिन भेजने का काम करती है। वह शाम-सबेरे टिफिन भेज देती है। सबेरे का नाश्ता भी। शुद्ध स्वादिष्ठ गर्म-गर्म खाना, नाश्ता। मैं सोचता हूं, अब कुछ पुण्य कमा लूं। आपके पास तो मिलने जुलने वाले आते ही रहते हैं। अगर आपकी जानकारी में कोई ऐसा हो, महिला, पुरुष कोई भी, जो गरीब हो या बूढ़ा, अशक्त, अकेला हो या जिसके बेटा-बहू उसे भोजन न देते हों, या देने में कोताही करते हों, ऐसे व्यक्ति को मैं भोजन कराना चाहता हूं। मैं टिफिन वाली मैडम से कह दूंगा, उस व्यक्ति के घर भी टिफिन भिजवा दे दोनों समय। चाय-नाश्ता भी। पैसा मैं पटा दिया करूंगा।' 

वे सोच में पड़ गईं, बोलीं, 'भाई साहब, इस समय तो ऐसा कोई व्यक्ति मेरे ध्यान में नहीं आ रहा है। मैं पता करके आपको बताऊंगी

।' सज्जन चले गए। वे सोच में पड़ गई। उनका मुहल्ला तो श्रीसंपन्न लोगों का है। सबकी चमकती-दमकती बिल्डिंगें हैं। बिल्डिंगों के सामने तीन-चार चमकदार बाइक, कार खड़ी रहती हैं। घर के भीतर सुख-सुविधाओं के सारे आधुनिक साधन। हकीकत यह है कि ऐसे समृद्ध मुहल्ले में उनका ही है पुराना-धुराना। घर के सामने न बाइक, न कार। साइकिल तक नहीं। ऊपर से जाने कहां-कहां की गाएं आकर उनके दरवाजे के सामने बैठ आराम से जुगाली करती रहती हैं। उनके पते में लोग यही बताते हैं, 'पुराना घर, जिसके सामने गाएं बैठी रहती हैं।' घर के भीतर भी सिर्फ जीवन यापन के सामान्य साधन। उन्हें जरूरत भी नहीं महसूस होती। वे संस्कृत पढ़ाती हैं। उनके पास वही लोग पढ़ने आते हैं, जो धार्मिक पुस्तकों, विशेष रूप से भगवत गीता, दुर्गा सप्तशती या देवी-देवताओं के स्त्रोतों को मूल संस्कृत में पाठ करने की अभिलाषा रखते हैं। ऐसी अभिलाषा काफी लोगों के मन में है। सो कुछेक व्यक्ति उनके पास पढ़ने आते ही रहते हैं। बहुत अच्छा लगता है, ऐसे जिज्ञासुओं को सिखाकर। आमदनी खास नहीं। मगर उनका गुजारा चल जाता है। बल्कि जरूरतमंदों की मदद भी कर देती हैं। हालांकि इधर आर्थिक मदद देने वाली सरकार की अनेक योजनाएं आईं। अच्छे खासे धन-संपन्न लोगों ने तक बढ़-चढ़कर उनका फायदा उठाया। 

उन्हें भी दबी जबान से सलाह दी गई कि इन योजनाओं से घर फायदा उठाएं। फायदा उठाएं और ठाट-बाट से रहें, मगर उन्हें यह बात सुननी तक नागवार लगती। अरे, अपने हाथ हैं, पांव हैं, विद्या है, बुद्धि है। क्या अपना जीवन अपने दम पर नहीं चला सकतीं वे। उन्हें तो लगता, सरकारें मदद लुटा-लुटा कर लोगों को मुफ्तखोर बना रही हैं। लेने वाले लेते रहें मदद, वे हर्गिज नहीं लेने वाली। अपनी छोटी-सी कमाई में जीती हैं शान से। जरूरतमंदों की मदद तो कर देती हैं वे मगर हल्की-फुल्की ही। किसी को दोनों समय भोजन कराने की बात कभी सोची ही नहीं। कभी ऐसी मदद मांगी भी नहीं गई। अब इन सज्जन ने कहा है तो वे सोचने लगीं। अपने मुहल्ले में तो कोई नहीं। आस-पास के आगे पीछे के मुहल्ले। पूरे शहर की सोचने लगी... कहां हो सकता है ऐसा व्यक्ति। 

पड़ोसियों से जिक्र भी किया 'आपके घर इतने नौकर-चाकर हैं घर में भी, दुकान में भी। किसी को जरूरत हो...।' पड़ोसियों ने उड़ा दिया, 'अब कहां पाओगे जी ऐसा गरीब आदमी?' 

'गरीब न सही, कोई बेचारा अभागासा ही सही। सभी ने इनकार में सिर हिला दिया। क्या करें! सबेरे अखबार वाला आया। उसे रोककर बताया। पूछा '...मुन्नू, तेरी जानकारी में है ऐसा कोई व्यक्ति।' वह सिर हिलाने लगा, 'मेरी जानकारी में तो नहीं है, पता करके बताऊंगा।' दूधवाला आया तो वे उससे पूछने लगीं। सोचकर बोला, 'यहां तो नहीं है। गांव में हो सकते हैं।'

 घर में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था। मजदूर-मिस्त्री गांवों से आए थे। उन्हीं से पूछने लगीं। सोचकर बोले, 'हमारे गांव में तो ऐसा कोई नहीं है मांजी।' मिस्त्री बोला, 'सरकार तो खुद मुफ्त लुटा रही है, चीजों से लेकर रुपया-पैसा सब। अब कहां ऐसा गरीब पाओगे मांजी। अब तो भिखारियों तक के ठाट हैं।

' काम वाली बाई से तो पूछना ही व्यर्थ। उसके रहन-सहन का स्तर तो उनसे भी ऊंचा। उसकी साथिनों का भी। सब मैडम दिखती हैं। हफ्ते भर बाद वे सज्जन फिर आए पूछा, 'मिला कोई बहनजी?' 

वे अफसोस करने लगीं, 'अभी तक तो कोई नहीं मिला भाई साहब। कितनो से पूछा।' वे सज्जन संकोच से कहने लगे, 'देखिए बहनजी, अन्यथा मत लीजिएगा। आप वृद्ध हैं, अशक्त हैं, आपके कोई नहीं है। गरीब ब्राह्मण भी हैं। बेहद धार्मिक भी। आपको भोजन कराकर मुझे बहुत संतुष्टि मिलेगी। पुण्य मिलेगा। परमात्मा ही मुझे पुण्य कमाने का मौका दे रहा हैं। दरअसल, मैं आपके पास आया ही इसीलिए था। पर उस समय डर से नहीं कह पाया। मुझे पुण्य लाभ लेने दीजिए बहनजी... उन्होंने हाथ जोड़ दिए।' वे सन्नाटे में आ गईं। आंखों के आगे अंधेरा। दिमाग सुन्न। एक ही क्रूर विचार चमक रहा था जेहन में... तुम्हारे स्वाभिमानी जीवन का यही मूल्यांकन।*

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