Biography Of Swami Vivekananda || motivation life of Swamiji Hindi

swami venkatesananda biography
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Biography Of Swami Vivekananda || motivation life of Swamiji

प्रारंभिक जीवन :- (1863-1888)

स्वामी विवेकानन्द के पूर्वजों का आदि निवास वर्धमान जिले के, कालना महकमे के डेरेटौना ग्राम में था। ब्रिटिश शासन के प्रारंभ में वे लोग कलकत्ता चले आये - पहले गढ़ गोविन्दपुर में, बाद में कलकत्ते के सिमला में रहने लगे। सिमला मुहल्ले के जिस घर में स्वामीजी का जन्म हुआ था, उसे उनके परदादा राममोहन दत्त ने बनवाया था। राममोहन के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गाप्रसाद बीस-बाईस वर्ष की उम्र में संसार त्याग कर संन्यासी हो गये उस समय उनके पुत्र विश्वनाथ शिशु थे। विश्वनाथ अपने प्रयास से जीवन में आगे बढ़े और उन्होंने वकालत का पेशा अपनाया। उनका विवाह सिमला के नन्दलाल बसु की एकमात्र पुत्री भुवनेश्वरी देवी के साथ हुआ उनकी ही छठवी रान्तान थे नरेन्द्रनाथ जो बाद में स्वामी विवेकानन्द कहलाये। विश्वनाथ दत्त अत्यन्त उदार प्रकृति के मनुष्य थे। वे खान-पान- पोशाक और अदब-कायदे में हिन्दू-मुस्लिम की मिली-जुली संस्कृति के अनुरागी थे तथा कर्मक्षेत्र मे अंग्रेजो का अनुसरण करते थे। वे अत्यधिक अर्थोपार्जन करते लेकिन संचय करना नहीं जानते थे। बहुत से आत्मीय तथा निर्धन लोगों का पालन-पोषण उनके द्वारा होता था। वे सात भाषाओं के जानकार थे। इतिहास और संगीत उनका प्रिय विषय था। भुवनेश्वरी देवी सही मायने में उनकी योग्य सहधर्मिणी थीं। उनके प्रत्येक क्रिया-कलापो मे उनके व्यक्तित्व तथा अभिजात्यपन की झलक मिलती थी। उनके पास से गरीब-दू खी लोग कभी भी खाली हाथ नही लौटते। घर के सारे कार्यों की देखभाल स्वयं करते हुए भी वे नियमित रूप से पूजा, शास्त्रपाठ और सिलाई-बुनाई का काम किया करती। प्रतिदिन पड़ोसियों के सुख-दुख की खबर लेना भी नहीं भूलती थी। नरेन्द्रनाथ ने अपनी माँ से ही प्रारंम्भिक अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त किया था।


भुवनेश्वरी देवी (Bhuvaneswari Devi)
भुवनेश्वरी देवी (Bhuvaneswari Devi)

स्वामी विवेकानंद का जन्म (born of swami vivekananda)

12 जनवरी 1863  पौष संक्रान्ति के दिन सुबह 6 बजकर 33 मिनट 33 सेकंड पर नरेन्द्रनाथ का जन्म हुआ । भुवनेश्वरी देवी का विश्वास था कि काशी के वीरेश्वर शिव की कृपा से ही उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई है। इसलिए पुत्र का नाम रखा 'वीरेश्वर'। वीरेश्वर से ही उन्हे 'बिले कह कर पुकारा जाने लगा। बिले में बचपन से ही असाधारण मेधा, तेजस्विता, साहस, स्वतंत्र विचारधारा, सहृदयता,भाई-बंधुओ से प्रेम और खेलकूद के प्रति आकर्षण दिखाई देता था।उसके साथ ही उनमें प्रबल आध्यात्मिक जिज्ञासा भी थी। 'ध्यान-ध्यान' खेलते हुए वे सचमुच में गंभीर ध्यान में डूब जाते। वे राम-सीता और शिव की पूजा करते थे। साधु-संन्यासी देखते ही एक अनजाने आकर्षण से दौडे जाते। सोने से पहले ज्योति-दर्शन उनकी प्रतिदिन की स्वाभाविक अनुभूति थी।उम्र बढ़ने के साथ-साथ नरेन्द्रनाथ स्कूल के वाद-विवाद, तथा परिचर्चा मंडली के प्रमुख, खेलकूद के नेता, शास्त्रीय संगीत और. भजन के प्रथम श्रेणी के गायक, नाटको के कुशल अभिनेता बन गये। और विभिन्न प्रकार के पुस्तको के अध्ययन के फलस्वरूप वे अल्प आयु मे ही गंभीर विचारक हो उठे| संन्यास जीवन के प्रति उनका आकर्षण क्रमशः बढ़ता रहा लेकिन वे जगत के प्रति हृदयहीन नही, अपितु ममतामय बने रहे। मनुष्य चाहे जैसी भी कठिनाइयो मे क्यों न हो वे सदा उनके दु:ख कष्टों को दूर करने में प्रत्यन्तशील रहते थे।

स्वामी विवेकानंद प्रारंभिक शिक्षा (Swami Vivekananda Elementary Education)

1879 ई० मे मेट्रोपोलिटन स्कूल से प्रथम श्रेणी मे एंट्रेस पास कर नरेन्द्रनाथ पहले प्रेसिडेंसी कॉलेज मे भर्ती हुए। लेकिन मलेरियाग्रस्त होने से कॉलेज में अनुपस्थित होने के कारण यह कॉलेज छोड़कर उन्हें जेनरल एसेंम्बलीज इनस्टिट्यूशन (वर्तमान में स्कॉटिश चर्च कॉलेज) मे भर्ती होना पड़ा। वहाँ से उन्होंने 1881  में एफ ए. एवं 1884 में बी. ए. पास किया। स्कूल-कॉलेज की परीक्षा को विशेष महत्व न देने पर भी उनमें प्रबल विद्यानुराग था तथा पढ़ाई लिखाई की परिधि भी अत्यन्त विस्तृत थी। उन्होंने छात्रावस्था में ही दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर को उनके एक मतवाद की समालोचना करके चिट्टी लिखी थी तथा स्पेन्सर ने भी उस पत्र के उत्तर में नरेन्द्रनाथ की यथेष्ट प्रशंसा करते हुए लिखा था कि पुस्तक के परवर्ती संस्करण में वे इस समालोचना के अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तन करेंगे। कॉलेज के अध्यापक विलियम हेस्टि तक ने उनकी प्रतिभा से मुग्ध होकर कहा था : 'नरेन्द्रनाथ वास्तव में एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। मैं बहुत जगहों पर घूमा हूँ लेकिन इसके समान बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा कही भी नहीं देखी, यहाँ तक कि जर्मनी के विश्व-विद्यालयों के दर्शन शास्त्र के छात्रो में भी नही ।
नरेन्द्रनाथ ने सर्वप्रथम विलियम हेस्टि से ही सुना कि दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण परमहंस को समाधि होती है। इसके बाद 1881 ई० के नवम्बर महीने में (6 नवम्बर) को कलकत्ता में सुरेन मित्र के घर पर उन्होंने श्रीरामकृष्ण को पहली बार देखा। उस दिन नरेन्द्रनाथ ने श्रीरामकृष्ण से सीधे-सीधे प्रश्न पूछा - वही प्रश्न जो उन्होंने इसके पहले भी कई व्यक्तियों से पूछा था : 'क्या आपने ईश्वर दर्शन किया है?" उत्तर मिला : हाँ, जैसे मैं तुम्हे देख रहा हूँ वैसे ही उन्हें देखता हूँ, बल्कि उससे भी स्पष्ट रूप से उन्हे देखता हूँ। तुम भी यदि देखना चाहो,तो तुम्हें भी दिखा सकता हूँ। नरेन्द्रनाथ यह सुन आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने यह पहली बार ही देखा ऐसे मनुष्य को जिन्होंने ईश्वर को देखा है। इतना ही नहीं जो दूसरों को भी ईश्वर दिखा सकते हैं।लेकिन नरेन्द्रनाथ ने उन्हें आसानी से नही मान लिया। जब वे उनकी पवित्रता, त्याग, और आध्यात्मिकता के सम्बन्ध वारम्वार परीक्षा करके नि संशय हो गये तभी उन्होंने उन्हें जीवन के ध्रुवतारा के रूप में ग्रहण किया। उनकी इस जाँचने परखने की प्रवणता से श्रीरामकृष्ण को ही सबसे अधिक प्रसन्नता हुई लेकिन उन्होने प्रारम्भ से ही जान लिया था कि नरेन्द्रनाथ नर-ऋषि के अवतार है।जो मनुष्यो का दुख दूर करने के लिए तथा उनके भाव प्रचार के यंत्र के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए है।नरेन्द्रनाथ ने लगभग चार वर्षों तक श्रीरामकृष्ण का घनिष्ठ सान्निध्य  प्राप्त किया। इन चार बर्षों में श्रीरामकृष्ण की शिक्षा तथा उनकी अपनी योग्यता के फलस्वरूप उन्हे विभिन्न आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्राप्त हुई।

स्वामी विवेकानंद पिता की मृत्यु (Death of swami vivekananda father)

इसी बीच 25 फरवरी 1884 ई० को पितृवियोग होने से वे भयानक आर्थिक कठिनाइयों मे पड़ गये। लेकिन उनका विवेक वैराग्य जरा भी कम नही हुआ। 1884 ई० मे श्रीरामकृष्ण गले के कैंसर से पीड़ित हुए।उन्हें चिकित्सा के लिए पहले श्यामपुकुर और बाद में काशीपुर के एक किराये के मकान में लाया गया। इस मकान में आकर नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों के साथ श्रीरामकृष्ण की सेवा और तीव्र आध्यात्मिक साधना में डूब गये। एक दिन उन्होने श्रीरामकृष्ण को बताया कि वे शुकदेव के समान दिन रात निविकल्प समाधि में डुबे रहना चाहते है। लेकिन श्रीरामकृष्ण ने कहा: नरेन्द्रनाथ के केवल अपनी मुक्ति चाहने से ही नही होगा, उसे एक विशाल वटवृक्ष के समान बनना होगा जिसकी छाया में आकर पृथ्वी के मनुष्य शांति प्राप्त करेगे। यह कहने के बावजूद भी उनकी कृपा से काशीपुर मे ही नरेन्द्रनाथ ने एक दिन धर्मजीवन की सर्वोच्च उपलब्धि निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति की। समाधि से नीचे उतरने पर श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा : इस उपलब्धि की चाबी उन्होंने अपने पास रख ली है। जब जगत् के प्रति नरेन्द्रनाथ का कर्तव्य समाप्त हो जायेगा तभी वे अपने हाथ से इस उपलब्धि का द्वार पुनः खोल देंगे।

Death of Ramakrishna Paramahamsa
Death of Ramakrishna Paramahamsa

रामकृष्ण परमहंस की  मृत्यु (Death of Ramakrishna Paramahamsa)

काशीपुर में श्रीरामकृष्ण ने एक दिन एक कागज पर लिखा नरेन शिक्षा देगा। अर्थात् भारत का जो शाश्वत आध्यात्मिक आदर्श है जिसे उन्होने अपने जीवन मे रूपायित किया है, जगत में उसका प्रचार नरेन्द्रनाथ ही करेंगे। नरेन्द्रनाथ के आपत्ति प्रगट करने पर श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा : 'तेरी हड्डियों को करना होगा।' और एक दिन वैष्णव धर्म के सम्बन्ध मे चर्चा करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा : जीवों पर दया नहीं, शिवज्ञान से जीव सेवा।' नरेन्द्रनाथ मुग्घ होकर बोले : 'आज मैंने ठाकुर की बातो मे कैसा अद्भुत्आलोक पाया। यदि कभी भगवान ने अवसर दिया तो आज जो सुना है, इस अद्भुत् सत्य का संसार में सर्वत्र प्रचार करूँगा।' परवर्तीकाल मे स्वामीजी ने मनुष्य की सेवा के माध्यम से ही भगवान की उपासना की बात जो इतनी बार कही है उसका उत्स यही घटना है। वस्तुतः विवेकानन्द का प्रत्येक कार्य श्रीरामकृष्ण द्वारा ही निर्देशित था। श्रीरामकृष्ण सूत्र हैं, स्वामीजी उसके भाष्य हैं। संन्यासी गुरू भाइयों को लेकर एक संघ प्रतिष्ठा का निर्देश भी श्रीरामकृष्ण ने उन्हे ही दिया था।

16 अगस्त 1886 ई० को श्रीरामकृष्ण ने लीला संवरण किया।उसके कुछ दिन बाद नरेन्द्रनाथ ने कुछ गुरुभाइयों को लेकर वराहनगर के एक पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान में सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण मठ की प्रतिष्ठा की। घोर दारिद्रय, - अर्धाशन उनके नित्यसंगी.थे! इन सबके बावजूद तीव्र तपस्या, भजन-कीर्तन और शास्त्र चर्चा में उनके दिन बीतते। नरेन्द्रनाथ तथा उनके इन गुरूभाइयों ने पहले ही निश्चय कर लिया था कि वे लोग संन्यास ग्रहण करेंगे। यह संकल्प उन्होंने 24 दिसम्बर 1886 ई० को आटपुर में लिया। उस समय नरेन्द्रनाथ तथा उनके कुछ गुरूभाई ऑटपुर गये थे। क्रिसमस- इव की रात में खुले आसमान के नीचे प्रज्वलित धूनी के सामने उनलोगों ने एक साथ प्रतिज्ञा की कि संन्यास ग्रहण कर वे लोग अपना जीवन मानव कल्याण के लिए उत्सर्ग करेंगे। इसके बाद वराहनगर मठ लौटकर 1887 ई० के जनवरी महीने में नरेन्द्रनाथ और उनके दस गुरूभाइयों ने संन्यास ग्रहण किया। नरेन्द्रनाथ का नाम हुआ - स्वामी विविदिषानन्द संन्यास के बाद स्वामीजी और उनके गुरूभाई बीच बीच में परिव्राजक बनकर निकल पड़ते। कभी अकेले, कभी कुछ लोग मिलकर। इस तरह पैदल चलकर स्वामीजी ने लगभग सारे भारत की परिक्रमा की। शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्घन, राजे-महाराजे, ब्राह्मण-चाण्डाल आदि समाज के सभी स्तरा के लोगों के साथ उनका परिचय हुआ। उनकी प्रतिभा, आकर्षक तेजस्वी कान्ति और आध्यात्मिक प्रभाव से सभी प्रभावित हुए।

Swami Vivekananda go to America
Swami Vivekananda go to America

Why Swami Vivekananda go to America?
अमेरिका जाने की तैयारी :-(1893-1893)

भारतवर्ष का असली स्वरूप को स्वामीजी ने भी हृदय से पहचाना। 3 अगस्त 1890  ई० को वे जो परिभ्रमण पर निकले, वह उनकी दीर्घतम यात्रा थी। इसी भ्रमण के अन्तिम चरण में 1892 ई० के दिसम्बर महिने में वे कन्याकुमारी के समुद्र के बीच भारत की अन्तिम शिलाखण्ड पर बैठकर तीन दिन तक ध्यान करते रहें। ध्यान के समय भारत का अतीत, वर्तमान और भविष्य तथा भारतवर्ष की समस्याओं के समाधान के उपाय भी उनकी आँखों के आगे उभर आए। उनके परिक्रमा काल में ही, उनकी प्रतिभा से चकित होकर कई लोगों ने उनसे अमेरिका के विश्वधर्म महासम्मेलन में भाग लेने का आग्रह किया। पहले पहले तो स्वामीजी ने इसपर ध्यान नहीं दिया बाद में मद्रास के लोगों की इच्छा तथा दैवी आदेश (श्रीरामकृष्ण ने सूक्ष्मशरीर से उन्हे आदेश दिया तथा श्रीमाँ सारदादेवी ने भी उन्हे पत्र द्वारा अनुमति दी) से उन्होंने अमेरिका जाने का निश्चय किया। स्वामीजी अमेरिका गये,.
भारत की सामान्य जनता के प्रतिनिधि बनकर, उन्हीं की आर्थिक सहायता से। उनकी इच्छा भी यही थी, उन्होंने कहा भी था, "यदि यह माँ की इच्छा है कि मुझे (अमेरिका) जाना है तो मैं आम जनता की आर्थिक सहायता से ही जाऊँगा। क्योंकि मैं उन्हीं के लिए पाश्चात्य देशों में जा रहा हूँ- साधारण और गरीब लोगों के लिए।" 31 मई 1893 ई० को स्वामीजी बम्बई से अमेरिका के लिए रवाना हो गए। वैकुवर पहुंचे 25 जुलाई को। वहाँ से रेलगाड़ी द्वारा 30 जुलाई की सन्ध्या में पहुँचे शिकागो। घर्ममहासम्मेलन के लिए बहुत दिन बाकी है, यह जानकर कम खर्च में रहने के लिए वे बोस्टन चले गए। बोस्टन में वे बहुत से विख्यात पण्डितों और अध्यापकों से मिले। इनमें से सबसे उल्लेखनीय है हारवर्ड विश्वविद्यालय के अध्यापक राइट। स्वामीजी के पास कोई परिचयपत्र नहीं है, यह जानकर अध्यापक राइट ने घर्मसम्मेलन समिति के अध्यक्ष डा०बैरोज के नाम चिट्ठी में लिखा : "हमारे सभी अध्यापको को एकत्रित करने पर जो होगा, यह संन्यासी उससे भी अधिक विद्वान है।"

धर्ममहासभा और स्वामीजी :-(1893-1896) impact of speech given by Swami Vivekananda at Chicago in 1893

11 सितम्बर 1893 ई० को धर्ममहासभा प्रारम्भ हुई। स्वामीजी ने शाम को वक्तृता दी। उनके अमेरिका के बहनों और भाइयों यह सम्बोधन करते ही सभा के सात हजार श्रोताओं ने उन्हे विपुल अभिनन्दन जनाया। इसके बाद स्वामीजी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया। उसमे सभी धर्मों के प्रति उनके उदार प्रीतिपूर्ण मनोभाव के अपूर्व प्रकाश को देखकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। स्वामीजी रातोरात विख्यात हो गये। 27 सितम्बर तक धर्मभमहासभा चली | उन्हें प्राय: प्रतिदिन ही वक्तव्य देनी पड़ती थी | उनके उदार युक्ति पूर्ण विचार के कारण सभी लोगों ने उन्हें धर्म महासभा के श्रेष्ठ वक्ता के रूप में स्वीकार कर लिया | शिकागो के हर सड़क पर उनके चित्र शोभायमान हो उठे | वहां के समाचार पत्र उनके प्रति प्रशंसा से उद्वेलित हो उठे : "धर्म महासभा में विवेकानंद  निसंदेह  सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है" सुनकर समझ गए शिक्षित जाती के बीच धर्म प्रचारक भेजना कितनी बुद्धिहीन का कार्य है (दी हेराल्ड) 'अपनी विचारधारा की चमत्कारी था और अपने वक्तव्य के प्रभाव से वे महासभा में अत्यंत लोकप्रिय हैं| विवेकानंद के केवल मंच के एक और से दूसरे और जाने पर ही तालियां बजने लगती है और भी हजारों मनुष्य के इस स्पष्ट प्रशंसा जरा भी गर्व का अनुभव नहीं करते थे| उसे (दी बोस्टन इवनिंग   ट्रांसक्रिप्ट) कार्यक्रम सूची के अनुसार विवेकानंद को सबसे अंत में ही वक्तव्य देना पड़ता था| | इसके पीछे  उद्देश्य था श्रोताओं को अंत तक रखे रहना | किसी दिन जब गर्मी बहुत रहती और किसी  नीरस वक्ता के सूदीर्घ वक्तव्य से उभर कर जब सैकड़ों लोग सभागृह से जाने लगते तब उस श्रोता मंडली को रोकने के लिए केवल इतनी घोषणा करना ही यथेष्ट होता है कि अंतिम प्रार्थना के पहले विवेकानंद कुछ बोलेंगे | इतना सुनते ही उनके 15 मिनट के वक्तव्य को सुनने के लिए लोग घंटों बैठे रहते |

विदेशों में स्वामीजी विवेकानंद जी द्वारा किए गए धर्म प्रचार (Promotions done by Swamiji Vivekananda abroad)

इसके बाद स्वामीजी अमेरिका के बड़े बडे शहरो में धर्मप्रचार करने लगे अमेरिका की जनता, विशेष कर शिक्षित समुदाय, उनकी और भी अधिक अनुयायी हो उठी| केवल कुछ संकीर्ण मनोवृत्तिवाले भारतीय और ईसाई सम्प्रदाय के लोग जलन के कारण उनके विरूद्ध दुष्प्रचार करने लगे। सामान्य रूप से दुखी होते हुए भी स्वामीजी ने अपने चरित्रबल के द्वारा सारी विघ्न बाधाओ को दूर करने के बाद 2 वर्ष बाद 16 अगरस्त 1895 ई० को अगस्त महीने में वे यूरोप गये। पेरिस और लंदन में प्रचार कार्य के बाद दिसम्बर महीने मे वे पुन: अमेरिका लौट आये। 1896 ई० अप्रैल को अमेरिका से बिदा लेकर पुन: लंदन आये। विपिन चन्द्र पाल ने स्वामीजी  के प्रभाव के बारे में एक पत्र में वर्णन किया है | "ईग्लैड में बहुत जगहों पर मैं ऐसे बहुत लोगो के सान्निध्य में आया हूँ जो स्वामीजी विवेकानन्द के प्रति प्रगाढ श्रद्धा और भक्ति रखते है। यह सच है कि मैं उनके सम्प्रदाय से जुड़ा नहीं हूँ तथा उनसे किसी किसी विषय पर मेरा मतभेद भी है तथापि मुझे स्वीकार करना ही होगा कि विवेकानन्द के प्रभाव से यहाँ (इंग्लैंड में) बहुतो की आँखें खुल गयी है उन्ही की शिक्षाओं के फलस्वरूप यहाँ के अधिकांश लोग आजकल विश्वास कर रहै है कि प्राचीन हिन्दू शास्त्रों में आश्चर्यजनक आध्यात्मिक तत्व निहित है। "

Swami vivekanada
Swami vivekanada 

स्वामी विवेकानंद भारत लौटे (1896-1898) Swami Vivekananda returned to India from london

16 दिसम्बर  1896 को स्वामीजी लंदन से भारत के  लिये रवाना हुए एवं 15 जनवरी 1897 ई० को कोलम्बो पहुँचे। स्वामीजी ने पाश्चात्य देशों में अपनी सफलता से अपने देशवासियों के मन में जी आत्मविश्वासा और आत्म मर्यादा जगाया था, उससे उनकी सदियों संचित हीन भावना  क्षण मात्र  मे तिरोहित हो गई| भारतवासी गर्व से मसतक ऊँचा करके सीना तानकर सोचने लगे : विश्व की सम्यता के भंडार में उनका अवदान पाश्चात्यों से कम नहीं बल्कि अधिक ही है। यह उपलब्धि जिसने उन्हें दिलायी जिससे समस्त देश की मोहनिद्रा भंग हुई, उस जादूगर सदृश्य मनुष्य का अभिनन्दन करने के लिए सम्पूर्ण देश ही उस समय अधीर आग्रह से कंम्पित हो रहा था। इसीलिए जब स्वामीजी कोलम्बो पहुँचे, तब उन्होंने देखा कि सम्पुर्ण देश की कृतज्ञता ने एक अभूतपूर्व अभिनंदन का रूप ले लिया है। उस अभिनन्दन की लहर रामनाद, मद्रास तथा मद्रास से कलकता के मार्ग में सर्वत्र चारों दिशाओं में बह रही थी। स्वामीजी 19 फरवरी 1897 ई० को कलकत्ता पहुँचे। अभिनन्दन पर अभिनन्दन - सम्पूर्ण कलकत्ता अपनी विश्वविजयी सन्तान को लेकर मतवाला हो उठा था। पाश्चात्य देशों में अविराम वक्तव्य और भ्रमण, उसके ऊपर सम्पूर्ण राष्ट्र का यह "स्नेह भरा अत्याचार - इन सबके कारण स्वामीजी का शरीर टूटने लगा। इन सबके बावजूद वे इस बीच श्रीरामकृष्ण द्वारा प्रदर्शित पथ पर संन्यासी संघ को स्थायी नींव पर स्थापित करने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने मद्रास में शाखाकेन्द्र खोलने के लिए स्वामी रामकृष्णानन्द को भेजा। मुर्शिदाबाद के सारगाछी मैं स्वामीजी अखेडानन्द ने स्थायी सेवाश्रम बनाया । इसी प्रकार उन्होंने दूसरे संन्यासी भाइयों को भी निर्दिष्ट दायित्व प्रदान किया। स्वामी सारदानन्द और स्वामी अभेदानन्द को क्रमशः अमेरिका और इंग्लैंड का कार्यभार दिया। 1 मई 1897 ई० को स्वामीजी ने अनुष्ठान पुर्वक रामकृष्ण मिशन की प्रतिष्ठा की । उनके मन में विदेश में रहते समय ही भावी संघ के लिए गंगा किनारे एक स्थायी जमीन खरीदने की इच्छा थी। 1898 ई० में उनका यह स्वप्न पूरा हुआ। उसी वर्ष 9 दिसम्बर को बेलूड मे श्रीरामकृष्ण मठ स्थापित हुआ

दूसरी बार पश्चिम देशों की यात्रा (1899-1900) Second time visit to West countries by swami vivekananda

20 जून 1899 ई० को स्वामीजी ने दूसरी बार पश्चिम देशों की यात्रा की तथा दो सप्ताह इंग्लैंड में रहकर अगस्त में अमेरिका पहुँचे। उस बार वे अमेरिका में लगभग एक वर्ष रहे तथा उन्होंने 90 से भी अधिक वक्तृताए दी। फिर भी इस बार उनके पाश्चात्य भ्रमण का मुख्य उद्देश्य था, इन सब देशों में उनके द्वारा प्रदर्शित काम-काज कैसा चल रहा है यह देखना और उसकी भित्ति को सुदृढ़ करना। पेरिस, वियेना,कंस्टानटिनोपल, एथेंस और मिश्र से होते हुए स्वामीजी 9 दिसम्बर 1900 ई० को बेलुड़ मठ पहुँचे।

बेलूर मठ (Belur Math)
Belur Math(बेलूर मठ)

स्वामी विवेकानंद की मृत्यु Death of swami vivekananda

स्वदेश लौटते ही स्वामीजी 27 दिसम्बर को मायावती के लिए रवाना हो गये। वहाँ से 24 जनवरी 1901 ई० को लौटे। 6 फरवरी को मठ को एक ट्रस्ट बनाकर रजिस्ट्री की गई। 10 फरवरी को मठ के ट्रस्टीगणों के अनुमोदन से स्वामी व्रह्मानन्द रामकृष्ण मठ और मिशन के अध्यक्ष एवं स्वामी सारदानन्द सचिव हुए। इस प्रकार संघ के समस्त परिचालन भार से अपने को मुक्त कर अंतिम दो वर्ष स्वामीजी महासमाधि के लिए प्रस्तुत होने लगे। गुरुभाइयो या शिष्यों के द्वारा कोई परामर्श माँगने पर भी वे अपना मत देना नही चाहते थे। उन्हें स्वयं अपने विवेक से कार्य करने को कहते जिससे उनके न रहने पर लोग संघ के परिचालन के लिए स्वयं अपना निर्णय ले सके |
4 जुलाई 1902 ई० को स्वामीजी ने नर देह त्याग दिया। वे संध्या समय बेलुड मठ के अपने कमरे मे ध्यान कर रहे थे। रात के 9 बजकर 10 मिनट पर वह ध्यान ही महासमाधि मे परिणत हो गया उस समय उनकी उम्र 39 वर्ष 5 महीने 24  दिन थी। 
लेकिन स्थूल  देह विनाष्ट हो जाने पर भी जो शक्ति विवेकानन्द के रूप में प्रगट हुई थी, वह आज भी सूक्ष्मरूप से निरंतर कार्य कर रही है।विश्व के मनुष्यो के सामने स्वामीजी स्वयं ही यह प्रतिश्रुति दे गये."ऐसा भी हो सकता है कि इस शरीर को पुराने कपड़े के समान फाड़कर बाहर निकल जाने को ही मैं श्रेष्ठ समझे। लेकिन मैं कभी भी कार्य से विरत नहीं होऊँगा। मैं मनुष्यों को सर्वत्र ही प्रेरणा देता रहेंगा, जबतक प्रत्येक मनुष्य यह न समझ जाये कि वह भगवान है " 
भारतवर्ष के नवजागरण के प्रत्येक क्षेत्र को स्वामीजी ने अपूर्व रूप से प्रभावित किया है। वे समस्त विश्व के लिए भी अमूल्य पथनिर्देश दे गये हैं। कई मनीषियो ने उन्हे आधुनिक भारत के स्रष्टा के रूप में स्वीकार किया है। इस विषय में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का कथन र्मरणीय है : "'हमारे आधुनिक इतिहास की ओर दृष्टि डालने से कोई भी स्पष्ट रूप से देख सकेगा कि हम स्वामी विवेकानन्द के प्रति कितने ऋणी हैं। भारत की दृष्टि को उन्होंने उसकी आत्ममहिमा की तरफ उन्मीलित कर दिया था। उन्होंने राजनीति के आध्यात्मिक भित्ति का निर्माण किया था । हमलोग अंधे थे। उन्होंने हमें दृष्टि दी। वे ही भारतीय स्वाधीनता के जनक हैं। हमारे राजनैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता के पिता है।"

Swami Vivekananda motivation Quotes | स्वामी विवेकानंद के सफलता पर 21 संदेश

Death of  vivekananda :-

(On 7 July 1902, Swamiji gave up his male body. They In the evening, Belud was meditating in his room in the monastery. That meditation ended at Mahasamadhi at 9:10 AM, at that time his age was 39 years, 5 months and 24 days. 
But even after the gross body was destroyed, the power which was manifested in the form of Vivekananda is still working in a subtle way even today. Swamiji himself gave this relief in front of the human beings of the world.
"It is also possible that I would think it best to tear this body out like an old cloth and come out. But I will never cease from work. I will continue to inspire humans everywhere, till every man understands this. That he is god "
Swamiji uncommonly called every region of the renaissance of India.Has influenced They are also invaluable to the whole world Guidelines have been given. Many mystics have accepted him as the creator of modern India. Chakravarti Rajagopalachari's statement on this subject is noteworthy: 'Looking at our modern history, one can clearly see how indebted we are to Swami Vivekananda. He had shifted the vision of India towards his Highness. He created the spiritual wall of politics. We were blind. He gave us the sight. He is the father of Indian independence. Father of our political, cultural and spiritual freedom is.)



-Rahul Nirala


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