childhood storys of swami vivekananda part 2

childhood story of Swamiji

बचपन से ही नरेन का झुकाव आध्यात्मिकता और ईश्वरानुभूति की ओर थी। उनका बाल्यकाल से ही परिव्राजक तपस्वी सन्तों और संन्यासियों के प्रति प्रबल आकर्षण था। वे अपने को उनमें से एक मानते और जो कुछ भी उनके हाथ में मिलता, उसे उन्हें दे देते। उसके बाद जैसे ही कोई संन्यासी आते, नरेन को एक कमरे में बन्द कर दिया जाता। तब वे खिड़की से ही अपनी माँ की कीमती साड़ियाँ फेंककर उस साधु को दान कर देते।

आध्यात्मिक बालक नरेंद्र

गम्भीर ध्यान के दिव्य आनन्द की अनुभूति करना नरेन की जन्मगत विशेषता थी। वह अन्य बच्चों से बहुत भिन्न था। वह अपने बचपन से ही ध्यान का खेल खेला करता। यद्यपि यह खेल था, किन्तु इसने उसके भीतर एक आध्यात्मिक भाव जागृत किया। एक बार नरेन जब अपने साथियों के साथ खेल का ध्यान कर रहा था, तभी एक विषैला नाग वहाँ आ गया। यद्यपि बच्चों के लिए यह ध्यान का खेल था, किन्तु नरेन सचमुच ध्यानस्थ हो गया था। साँप को देखकर दूसरे बच्चे डर गए। वे लोग नरेन को सावधान करने के लिए चिल्लाद और भाग गए। लेकिन नरेन चुपचाप बैठा रहा। साँप थोड़ी देर रुकने के बाद वहाँ से चला गया। बाद में नरेन ने कहा कि वह साँप के बारे में कुछ नहीं जान सका, क्योंकि उस समय वह अकथनीय आनन्द का अनुभव कर रहा था। नरेन ने अपने बाल्यकाल में नियमित रूप से होने वाली एक अद्भुत घटना के बारे में स्वयं ही सुनाया था - "जहाँ तक मुको स्मरण आता है, अत्यन्त बचपन से ही सोने के लिए मैं जैसे ही अपनी आँखें बन्द करता, अपनी भौहों के बीच में मुझे एक विलक्षण ज्योति-बिन्दु दिखाई देती। उसमें हो रहे विभिन्न प्रकार के परिवर्तन को मैं बड़ी सावधानी से देखता रहता। वह प्रकाश-बिन्दु कई रंगों में बदलता रहता और बढ़ते हुए गेंद की आकार का हो जाता। अन्त में यह फट जाता और मेरे शरीर को सिर से पैर तक श्वेत तरल प्रकाश से ढंक देता। जैसे ही ऐसा होता, मेरी बाह्य चेतना चली जाती और मैं सो जाता। मैं सोचता था कि प्रत्येक व्यक्ति इसी प्रकार सोता है। उसके बाद जब मैं बड़ा हुआ और ध्यान का अभ्यास करने लगा, ता जैसे ही मैं अपनी आँखे मूंदता, यह प्रकाश-बिन्दु फिर से मेरे सामने आ जाती और मैं उसी पर अपना मन एकाग्र करता।"

 जन्मजात नेता नरेन

नरेन में नेतृत्व के गुण जन्मजात थे। यह उसके बाल्यकाल में ही सिद्ध हो गया। अपने मित्रों में वह सर्वमान्य नेता था। उसका प्रिय खेल था - 'राजा और राज-दरबार' । वह इस खेल में राजा बनता और दौड़कर सबसे ऊंची सीढ़ी पर बैठ जाता। वहीं से वह नीचे सीढ़ी पर बैठे हुए अपने साथियों की विभिन्न पदों पर नियुक्ति करता। कोई मन्त्री बनता, कोई सेनापति और किसी को कार्यालय का दायित्व दिया जाता। उसके व्यवहार ने उसके नाम - 'नरेन्द्र -नरों का स्वामी को सार्थक सिद्ध कर दिया। जब नरेन छह वर्ष की उम्र का था, तब अपने चचेरे भाई के साथ मेला देखने गया और वहाँ से उसने शिवजी की मूर्ति खरीदा। घर वापस आते समय दोनों थोड़ा - सा अलग हो गये। अचानक भीड़ के लोगों का चित्कार सुनकर नरेन ने पीछे मुड़कर देखा। भयंकर दृश्य था। उन्होंने देखा कि एक घोड़ागाड़ी सड़क के बीच में खड़े उनके चचेरे भाई को अब कुचलने ही वाली है। नरेन अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना, बायीं हाथ में शिव-मूर्ति को रखकर उस लड़के की सहायता के लिये दौड़ पड़ा। उसने अपनी दायीं हाथ से उस लड़के को पकड़ कर प्रायः घोड़े के पैर के पास से खींच लिया। रास्ते के लोगों में से कोई भी लड़के की सहायता के लिये नहीं दौड़ा. किन्तु उन लोगों ने नरेन के असाधारण साहस की प्रशंसा की और उसे आशीर्वाद दिया। जब उनकी माँ ने इस घटना को सुना, तो हर्ष के आँसू बहाती हुई बोली"बेटा, सदा मनुष्य बनना।" "जैसी महान मौं थी, वैसे ही पुत्र ! 

childhood story of Swamiji

तार्किक एवं दुस्साहसी नरेन 

नरेन जब बहुत छोटा था, तभी से वह अन्धविश्वासी प्रथाओं और जाति भेद की प्रामाणिकता के बारे में प्रश्न किया करता था। वह युक्तिपूर्वक प्रमाण के बिना किसी भी चीज को स्वीकार नहीं करता था। अटार्नी के पद पर कार्यरत नरेन के पिताजी उन दिनों जाति-प्रथा प्रचलित होने के कारण विभिन्न जाति के अपने मुवक्किलों के लिये अलग-अलग हुक्का पीने के लिये देते थे। यह देखकर नरेन आश्चर्यचकित हो गया। उसने सोचा कि यदि कोई एक जाति के लोग दूसरी जाति के हुक्के से पी ले तो क्या होगा? उसने इसे स्वयं ही जानने का निर्णय लिया। साहसपूर्वक उसने एक-एक करके सभी हुक्कों से एक-एक कश धुम्रपान किया। ठीक उसी समय उसके पिताजी ने कमरे में प्रवेश किया और पूछा कि क्या कर रहे थे? नरेन ने उत्तर दिया - "पिताजी! मैं देख रहा था कि यदि इस प्रकार मैंने जाति तोड़ दी तो क्या होगा, परन्तु कुछ नहीं हुआ!" उसके युक्तिवादी पिताजी जोर - से हँसने लगे। नरेन बचपन से ही बहुत साहसी था। उसके घर के पास में एक बगीचा था। वहाँ नरेन अपने मित्रों के साथ पेड़ों की डालियों पर झुलते हुए खेला करता था। नरेन को चम्पा का पेड़ बहुत प्रिय था, क्योंकि चम्पा के फूल से भगवान शिव की पूजा होती है। एक बार जब वह इस पेड़ की डाली को पैर से पकड़कर और सिर की नीचे करके उलटा होकर झूल रहा था, तभी एक वृद्ध सज्जन आ गये। उन्होंने नरेन को पुनः उस पेड़ पर चढ़ने से मना किया। नरेन ने पेड़ पर नहीं चढ़ने का कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया - "क्योंकि उस पेड़ पर एक ब्रह्मदैत्य रहता है। रात में वह सफेद वस्त्र पहनकर जाता है और जो लोग पेड़ पर चढ़ते हैं, उनकी गर्दन तोड़-मरोड़ देता है।" वे वृद्ध अपनी सफलता मानकर यह सोचते हुए चले गए कि अब ब्रह्मदैत्य के डर से लड़के पुनः पेड़ पर नहीं चढ़ेंगे । लेकिन जैसे ही वे वहाँ से गए, नरेन फिर से पेड़ पर चढ़ गया। नरेन के साथी सचमुच डर गये थे। उन लोगों ने नरेन को भी मना किया। किन्तु नरेन ने हँसते हुए कहा - "सभी चीजों को इसलिये मत मान लो कि किसी ने तुम्हें मानने के लिये कहा है। यदि बूढ़े दादाजी की बात सत्य होती, तो बहुत पहले ही मेरी गर्दन टूट गई होती।" बाद में वे अध्यात्म जिज्ञासुओं से कहा करते थे - सभी बातें इसलिये मत मान लो कि किसी ने वैसा कहा है। स्वयं सत्य की खोज करो। यही अनुभूति है। यह घटना उनके साहस, चिन्तन तथा कार्य की स्वतन्त्रता को प्रदर्शित करती है।

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